कल एक समारोह में गया था। वहाँ हिन्दी के सारे दिग्गज आए थे। मामला प्रेमचंद जयंती का था। इसी दिन हंस के चैबिसवें वर्ष में प्रवेश समारोह भी मनाया जाना था।
आप सब यह जानकर आश्चर्य होगा कि प्रेमचंद जयंती पर प्रेमचंद की स्थापित पत्रिका हंस के कार्यक्रम में आखिरी वक्ता नामवर सिंह के अलावा किसी ने प्रेमचंद का नाम तक भी नहीं लिया।
यह तो खैर थी कि नामवर सिंह ने अंत में समापन भाषण में इस बात के लिए टोका कि किसी वक्ता ने प्रेमचंद का नाम क्यों नहीं लिया ?
वरना एक अदभूत वाक्या होता कि प्रेमचंद जयंती पर प्रेमचंद शब्द का एक बार उच्चारण नहीं किया गया।
हंस के आयोजकों को यह तो पता ही होगा कि वहाँ उपस्थित भारी भीड़ प्रेमचंद जयंती और हंस के नाम पर जुटी थी।
खैर अंतिम तीन वक्ताओं अशोक बाजपेयी,अरूधंती राय और नामवर सिंह ने समारोह की लाज बचा ली।
हंस के पारिवारिक लेखकों ने तो अपने मानसिक दिवालिएपन का खुले मंच पर जो नंगा नाच दिखाया उसके लिए पूरा हिन्दी जगत सालों-साल तक शर्मसार रहेगा।
हंस के सभी पारिवारिक वक्ताओं ने अपने घटिया भाषण की शुरूआत एक ही तर्ज पर की,कि मैं अचानक बिना तैयारी के बुला लिया गया या मुझे तैयारी का वक्त नहीं मिला इसलिए.........मैं आप सब को घण्टे भर अपने घटिया भाषण से पकाऊँगा।
इनमें से किसी वक्ता ने यह नहीं कहा कि मेरी तैयारी नहीं है इसलिए मैं पाँच मिनट ही बोलुँगा !!
इन लोगों ने जो बकवास की उसका ब्यौरा दे कर आप लोग का उत्पीड़न कत्तई नहीं करूँगा।
गर यही हाल रहा तो हंस को गर्त में जाने से कोई नहीं बचा सकेगा।
हंस द्वारा पाले-पोसे तथाकथित लेखकों के गिरोह में प्रतिभा के सिवा हर चीज है। फिलहाल तो खबर यह है कि हंस के इन युवा तुर्कों में भी गृहयुद्ध चल रहा है कि
राजेन्द्र जी के बाद हंस की गद्दी किसे मिलेगी ??
चेलों की चिंता जायज भी है आखिर सारी गलीचगी उसी सिंहासन के लिए तो है !!
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आफताब की रौशनी गोशे-गोशे को रौशन करती है, उसे फर्क नहीं पड़ता कि कोई उसे जल दे, पूजन करे ! प्रेमचंद जी किसी के द्वारा नामोल्लेख के मोहताज नहीं, वह तो अफताब कि तरह हमेशा रौशन रहेंगे ! हाँ, ये हैरत कि बात है कि हंस के रहनुमाओं को उनका नाम कैसे विस्मृत रहा ! टिपण्णी धारदार है, ऐसे ही सजग बने रहिये ! साधुवाद !!
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