बहुत दिनों बाद इस ब्लाग पर आया। अचानक याद आ गई। पिछले कुछ दिन कुछ ऐसे गुजरे जो किसी भी लेखक के जीवन में दुःस्वप्न सरीखे होंगे। लेखकीय जीवन के लिए बनाए आदर्श चंद मिनटों में धूल धूसरित हो गए। बड़े बड़े की छोटी छोटी हरकतों से मन आहत हुआ था।
मुझे एक बहुत ही जरूरी लेख लिखना है। यह लेख बहुतों को नाराज कर सकता है। मैं इसे जरूर लिखुँगा लेकिन लिखने की उर्जा पाने के लिए मेरा मन कहीं आत्मीय मनोंरंजन खोज रहा था। इसी तलाश के बीच इस ब्लाग की याद आई।आज इस ब्लाग को खोला तो आश्चर्यचकित हुए बिना न रह सका। फालोवर लिस्ट में एक नाम दिख रहा था। वह नाम है अरविन्द जी का।
अरविन्द जी मैंने आप का नाम जब यहाँ देखा तो एक अजीब सी सुखद सी अनुभूति मेरे पूरे शरीर में दौड़ गई।मुझे किसी पुराने लेखक की कही वह बात याद आ गई किहर लेखक का कम से कम एक पाठक जरूर होता है। और उसे ज्यादा नहीं तो उसी एक पाठक के लिए जरूर लिखना चाहिए।
अरविन्द जी इसके इतर जो लिखता हूँ उसके कुछ पाठक जरूर होंगे। लेकिन मैं यहाँ अपना सबसे आत्मीय और सच्चा पक्ष रखता हूँ। बिना किसी लाग लपेट के, बिना किसी भाषाई कौशल के प्रयोग के भी गर एक पाठक मिल सकता है तो एक लेखक के लिए यह बहुत बड़ी जीत है।
आप को मुझमें यह विश्वास जगाने के लिए हार्दिक धन्यवाद।
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पुरानी बात है, लेकिन आपके लिए लिखनी पड़ेगी. प्रेमचंद की एक कहानी पढ़कर खुदकुशी की इच्छा करने वाला एक सिख युवक इस निश्चय के साथ घर लौट आया था कि 'नहीं, मरना नहीं है, जीना है और दिवालियेपन से फिर उसी शिखर पर पहुंचना है.' वर्षों बाद दिल्ली की एक साहित्यिक सभा में जैनेन्द्रजी, मेरे पिताजी ( स्व. प्रफुल्लचन्द्र ओझा 'मुक्त') और प्रेमचंदजी एकत्रित थे, वहीँ वह सिख भद्रपुरुष प्रकट हुए और वहां उन्होंने बहुत बड़ा ड्रामा खडा कर दिया. वह प्रेमचंदजी के चरण पकड़ने लगे, बज़िद हो गए कि बिना मेरे घर जूठन गिराए आप प्रयाग लौट नहीं सकते; क्योंकि यह जीवन तो आपका ही दिया हुआ है. उस दिन अखबार में आपका रिसाला न पढ़ा होतो, तो आज मैं दुनिया में न होता.'
ReplyDeleteबहरहाल, प्रेमचंदजी को दूसरे दिन की अपनी यात्रा स्थगित करनी पड़ी. वह पिताजी, जैनेन्द्रजी के साथ उन सिख महोदय के घर गए. सिख के पूरे परिवार ने प्रेमचंद जी का चरणामृत लिया और प्रेमचंदजी 'त्राहि-त्राहि' करते रहे.
उसी दिन पिताजी ने प्रेमचंद जी से कहा था--'आपने पूरे जीवन में यदि यही एक कहानी लिखी होती, तो भी आपको अमर बनाने के लिए काफी थी; क्योंकि वह किसी एक व्यक्ति की जीवन-रक्षा का कारण बनी थी!'
जाने क्यों आपका यह आलेख पढ़कर मुझे यह पुरानी कथा याद आ गई ! आभारी हूँ !!
आनन्द जी
ReplyDeleteइस अदभूत टिप्पणी के लिए आपका अत्यधिक आभारी हूँ। आप ने मुझ तक यह किस्सा पहुँचा कर मेरी बहुत मदद की। इस किस्से के बाद लिखने के उद्देश्य को लेकर कोई दुविधा नहीं रह जाएगी।
सचमुच मैं बहुत आभारी हूँ।
hey bhut accha likaha ha me apka bhut abhari hu
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